“विचित्र बात यह है कि भाजपा के कई नेताओं को झारखंड में हार का कारण समझ में नहीं आ रहा। समझ में नहीं आने का कारण जानकारी का अभाव ही कहा जायेगा। किसी भी युद्ध की तरह चुनाव-युद्ध में भी वस्तुस्थिति या जमीनी हकीकत की पूर्व जानकारी नहीं होने, अपनी कमजोरियों और विरोधी पक्ष की क्षमताओं का सही आकलन नहीं होने से रणनीति में जो गलतियां होती हैं उसका खमियाजा भुगतना ही पड़ता है, और यही झारखंड में भाजपा के साथ हुआ है*।”
*“झारखंड के वरिष्ठ नेताओं को झारखंड में पार्टी की भारी शिकस्त का अंदेशा नहीं था। मुख्यमंत्री के दंभ, पार्टी के गलत फैसलों, टिकटों के वितरण में घोर धांधली, अपने लोगों के टिकट अंधाधुंध ढंग से काटने और बाहर के अवांछनीय लोगों को टिकट देने से अनेक कार्यकर्ता और समर्थक नाराज हो गये या उदासीन हो गये। शहरी इलाकों में जहां भाजपा की पहुंच है, मतदान कम हुआ। राजधानी रांची में सबसे कम मतदान हुआ। पार्टी के उम्मीदवार को पिछली बार से करीब 16,000 वोट कम मिले*।”
बलबीर दत्त
भारतीय जनता पार्टी को हाल के दिनों में राज्य विधानसभाओं, विशेषत: झारखंड विधानसभा के चुनाव में झटका लगने के कटु अनुभव के बाद अपनी पूरी चुनावी रणनीति का पुनरावलोकन और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। जैसे किसी बीमारी को ठीक से समझने के लिए एक योग्य डाक्टर उसकी तह में जाने, रोग का निदान करने के बाद, इलाज की प्रक्रिया शुरू करता है, कुछ ऐसा ही भारतीय जनता पार्टी को करना होगा।
जैसे इमरजेंसी (1975-77) के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की सरकार की गलतियों और ज्यादतियों की जानकारी लोगों को मिलती जा रही थी, लेकिन बहुत-सी जानकारियां इमरजेंसी हटने के बाद मिलीं या ध्यान में आयीं। ठीक इसी प्रकार झारखंड में भाजपा की गलतियों की जानकारी चुनाव के दौर में लोगों को मिल रहीं थीं, लेकिन कई गलतियों की जानकारी चुनाव के बाद प्राप्त हुई। गलत फैसलों के दुष्परिणाम भी सामने आ गये।
*हार के वास्तविक कारण*
विचित्र बात यह है कि भाजपा के कई नेताओं को झारखंड में हार का कारण समझ में नहीं आ रहा। समझ में नहीं आने का कारण जानकारी का अभाव ही कहा जायेगा। किसी भी युद्ध की तरह चुनाव-युद्ध में भी वस्तुस्थिति या जमीनी हकीकत की पूर्व जानकारी नहीं होने, अपनी कमजोरियों और विरोधी पक्ष की क्षमताओं का सही पूर्व आकलन नहीं होने से रणनीति में जो गलतियां होती हैं, उसका खमियाजा भुगतना ही पड़ता है और यही झारखंड में भाजपा के साथ हुआ है।
पार्टी के कई नेता व प्रवक्ता, टीवी न्यूज चैनलों पर और अन्यत्र यह रटते जा रहे हैं कि उन्होंने डेवलपमेंट (विकास) के बहुत काम किये। यह दावा काफी हद तक सही है। लेकिन कुछ करणीम कार्य करने के साथ जो कार्य नहीं किये गये या गलतियां की गयीं, मतदाता उसकी अनदेखी नहीं करता। हमारे देश में आम मतदाता विकास के मुद्दों, आर्थिक नीतियों या घोषणापत्रों के आधार पर घर से वोट डालने नहीं निकलता। मतदान में अन्य कई फैक्टर भी प्रभावी भूमिका निभाते हैं, जिनमें निजी हिताहित और भावनात्मक मुद्दे भी शामिल रहते हैं। विधानसभा चुनावों में तो क्षेत्रीय दल या क्षेत्रीय मुद्दे मतदाताओं को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में होते हैं। तमिलनाडू जैसे कई राज्य तो ऐसे हैं, जहां राष्ट्रीय दल अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं।
*जीत-हार का सटीक विश्लेषण जरूरी*
हमारे देश के राजनीतिज्ञों की यह खासियत है कि वे चुनावों में अपनी हार को अक्सर शालीनतापूर्वक और खुले दिल से स्वीकार नहीं करते। जनादेश को मान लेना तो एक प्रकार की मजबूरी है, लेकिन हार का वैज्ञानिक और तर्कसंगत विश्लेषण करना भी एक मजबूरी मान लिया जाये तो कोई हर्ज नहीं। बल्कि इसे एक फायदेमंद प्र्रक्रिया और परिपाटी माना जाना चाहिये। अपनी पराजय के लिए बहानेबाजी का आसरा लेना या दूसरों पर दोषारोपण करना स्वयं को छलने के बराबर है।
पराजय की सटीक व्याख्या और विश्लेषण के साथ ही विजय की भी सटीक व्याख्या और विश्लेषण होना चाहिए। कई बार ऐसा पाया गया है कि विजयी पार्टी ने खुद यह नहीं सोचा होता कि उसे इतना बड़ा जनादेश मिल जायेगा। झारखंड विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे जैसे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, धारा 370, राम मंदिर, एन.आर.सी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) और सी.ए.ए. (नागरिकता संशोधन कानून) आदि प्रभावी नहीं हो पाये हालांकि भाजपा ने इनका लाभ उठाने का प्रयास किया। दूसरी ओर इन मुद्दों का विरोध करनेवाले महागठबंधन के नेता यदि यह समझते हैं कि भाजपा की हार में यह भी फैक्टर थे तो उसे भी सही नहीं कहा जायेगा, क्योंकि धरातल पर ये मुद्दे नजर नही आये। धरातल पर केवल और केवल क्षेत्रीय व स्थानीय मुद्दे ही असरदार थे।
पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर या मनचाही अवधारणा के आधार पर कोई राजनीतिक बयान देना ख्याली पुलाव पकाने के बराबर है, जैसाकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के उस बयान से जाहिर होता है जिसमें उन्होंने कहा कि झारखंड का जनादेश नागरिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरुद्ध जनभावनाओं की अभिव्यक्ति है। दिल्ली में बैठे हुए केजरीवाल क्या यह मानते हैं कि झारखंड विधानसभा का चुनाव इन दोनों राष्ट्रीय मुुद्दों पर एक ‘रेफरेंडम’ (जनमतसंग्रह) था? वस्तुस्थिति यह है कि यहां ये कोई चुनावी मुद्दे नहीं थे।
वैसे भी नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद जब प्रतिक्रियाएं आनी आरंभ हुई तब तक झारखंड में आधा चुनाव हो चुका था। केजरीवाल को झारखंड में मुख्य राजनीतिक दल के रूप में उभरने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं से पूछना चाहिए कि क्या उनके चुनाव के मुख्य मुद्दे यही थे?
इस प्रकरण में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव का बयान बहुत विवेकपूर्ण था। उन्होंने कहा कि जब मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष दोनों हार जायें तो इसका अर्थ है कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। यह देखना भी जरूरी है कि स्थानीय नेताओं से कहां चूक हुई।
*गलत फैसलों का दुष्परिणाम*
कभी-कभी चुनाव में किसी पार्टी की एक ही गलती उसका पूरा खेल बिगाड़ देती है, लेकिन झारखंड में भाजपा से एक नहीं एक साथ कई गलतियां हुईं- स्ट्रेटेजी के मामले में और मतदाताओं को रिझाने के मामले में भी।
गलत फैसलों का ही एक परिणाम यह था कि भाजपा ने क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दों को महत्व दिया। झारखंड के मतदाताओं ने मात्र छह माह पूर्व लोकसभा के चुनाव मे भाजपा की झोली भर दी थी। उसे 14 में से 12 सीटें मिलीं। लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के प्रति दोबारा विश्वास व्यक्त किया था। लोकसभा सीटों के अंतर्गत 57 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। चुनाव में 51 प्रतिशत वोट मिले थे। गठबंधन टूटने से 26 सीटों पर नुक्सान हुआ।
झारखंड में पार्टी की मशीनरी उतनी सक्रिय नहीं थी जितनी कि होनी चाहिए थी। जमीनी स्तर पर काम करने के बजाय हवा-हवाई बातें ज्यादा हो रही थीं। पार्टी के कर्त्ता-धर्ता आत्मतुष्टि के मूड में थे और यह मानकर चल रहे थे कि मोदी जी की सभाएं हो जायेंगी तो सब ठीक हो जायेगा। हवा उनके पक्ष में हो जायेगी। जानकार लोगों का कहना है कि अगर प्रधानमंत्री की 10 और राष्ट्रीय ‘अध्यक्ष अमित शाह’ की 11 रैलियां नहीं होती तो जो 25 सीटें मिलीं शायद वे भी नहीं मिलती। मुश्किल से आधी सीटें मिलती
झारखंड की राजधानी को भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है। वर्तमान विधायक और पूर्व मंत्री चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह लगातार छठी बार चुनाव जीत गये, लेकिन उन्हें मिलने वाले वोटों की संख्या घट गयी है।
*गठबंधन तोड़ना पड़ा भारी*
झारखंड में आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी भाजपा की सहयोगी पार्टी रही है। पिछली बार दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और बहुमत प्राप्त कर लिया था। इस बार सीटों के बंटवारे के विवाद को लेकर दोनों का गठबंधन टूट गया। गठबंधन के लिए आमतौर पर छोटी पार्टियां या क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा सीटों की मांग करती हैं और बड़ी पार्टी या राष्ट्रीय पार्टी ज्यादा सीटें देना नहीं चाहती। सौदेबाजी में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है।
लेकिन समझदारी का तकाजा यही है कि कुछ कम-बेशी करके मामले को निपटा दिया जाये। इस बार गठबंधन नहीं होने से भाजपा और आजसू दोनों को भारी नुकसान हुआ। भाजपा की सीटें जहां 37 से घटकर 25 रह गयी, वहीं आजसू की सीटें 7 से घटकर 2 रह गयीं। लेकिन यदि इन पार्टियों को मिले कुल वोटों को जोड़ा जाये तो 16 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां दोनों पार्टियों को महागठबंधन से अधिक वोट मिले हैं। यानी गणित के हिसाब से पूर्ण बहुमत मिल सकता था। भाजपा ने ‘अबकी बार 65 पार’ का नारा लगाते हुए अपनी ताकत को जरूरत से ज्यादा आंक लिया था। यह तो वैसा ही हुआ कि ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे।’
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव अभियान के दौर में ही वस्तुस्थिति को भांप लिया था, इसलिए उन्होंने चुनाव प्रचार के बीच में ही सार्वजनिक तौैर पर कह दिया था कि हम आजसू के साथ मिलकर सरकार बनायेंगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, इसका कोई तात्पर्य नहीं रह गया था।
*अपने नहीं बाहरी लोगों पर भरोसा*
भाजपा ने एक बहुत बड़ी गलती यह की कि चुनाव में बाहर के लोगों को दूसरे दलों से आये या लाये गये 16 लोगों को, पार्टी का टिकट दे दिया। इसका पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और आम लोगों में बहुत गलत मैसेज गया। प्रश्न है- क्या झारखंड में वर्षों से कार्यरत इस पार्टी को जो कई वर्ष सत्ता में रही उम्मीदवारों का टोटा पड़ गया था? मौजूदा 13 विधायकों का टिकट काट कर जिन लोगों को उम्मीदवार बनाया गया, उनमंे कई संदिग्ध चरित्र के व्यक्ति थे या अवांछनीय तत्व थे। भाजपा में लाये गये इन दलबदलुओं में से कई उम्मीदवार चुनाव हार गये। इस प्रकार कहा जा सकता है कि भाजपा की जीभ भी जल गयी और स्वाद भी नहीं आया।
हद तो तब हो गयी जब बिना किसी जाहिरी कारण के सरयू राय जैसे पुराने और दिग्गज पार्टी नेता का टिकट काट दिया गया। पार्टी ने मुख्यमंत्री रघुवर दास को एकाधिकार दे दिया था। इन्होंने पार्टी का बंटाधार कर दिया। इनका इरादा यह था कि सभी विधायक इनके खेमे के हों, इनकी मुट्ठी में रहे।
सरयू राय को वह अपना प्रतिद्वन्दी मानते थे और निष्कंटक राज करना चाहते थे। सरयू राय ने बगावत कर दी और अपना पुराना निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर रघुवर दास के ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी और भारी बहुमत से उन्हें हरा दिया। सरयू राय की जीत के लिये भाजपा के ही कई कार्यकर्ताओं ने कार्य किया। इन्हें बागी करार दिया गया, लेकिन इससे पूरी स्थिति में क्या फर्क पड़ता है। जो होना था, हो गया। प्रश्न है- बगावत की नौबत क्यों आयी?
*वोट नहीं डालने वाले भाजपा के ही वोटर थे*
रांची निर्वाचन क्षेत्र में मतदान का प्रतिशत राज्य में सबसे कम करीब 49 प्रतिशत रहा, जबकि यह राजधानी क्षेत्र है और यहां मतदाताओं में अधिकतम पढ़े-लिखे लोग हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आधे लोग वोट डालने ही नहीं आये। पार्टी के कार्यकर्ता हजारों लोगों को बूथों पर ही नहीं ला पाये। भाजपा का प्रभाव शहरी क्षेत्रों में अधिक है और शहरी क्षेत्रों में ही मतदान का प्रतिशतांश कम रहा, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान 70 से 76 प्रतिशत तक हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों में झारखंड मुक्ति मोर्चा का अच्छा-खासा प्रभाव है।
इस बार शहरी क्षेत्रों में व अन्यत्र जो लोग वोट डालने नहीं आये वे भाजपा के ही वोटर थे। ये लोग नाराज थे या उदासीन थे भाजपा को यह पता लगाने की जरूरत है। ऐसा बताया जाता है कि ये लोग नाराज भी थे और उदासीन भी थे। दोनों स्थितियां पार्टी के लिए हानिकर है।
*घर-घर मोदी, घर-घर रघुवर* !
जहां तक नाराजगी की बात है, यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि राजस्थान में 2018 में विधानसभा चुनाव में यह नारा बहुत चर्चित हुआ था- ‘मोदी तुमसे वैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं।’ ये लोग भाजपा या मोदी से नाराज नहीं थे, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनकी कार्यशैली और अक्खड़पन से नाराज थे। उन्होंने राजस्थान में भाजपा को हरा दिया। इन्हीं मतदाताओं ने नारे की सार्थकता 6 माह बाद लोकसभा चुनाव में सिद्ध कर दी जब राजस्थान से कांग्रेस का पूरी तरह सफाया कर दिया। लोकसभा की 25 की 25 सीटें 2014 के चुनाव की तरह भाजपा की झोलों में डाल दी।
झारखंड के मामले में जहां राजस्थान के संदर्भ में नारे में ‘वसुंधरा’ शब्द है, वहां ‘रघुवर’ अंकित कर देने से मतदाताओं की भावना प्रकट हो जाती है। रघुवर दास ने ‘घर-घर मोदीह्ण की तरह ह्यघर-घर रघुवर’ का नारा दिया, जो फेल हो गया। शायद रघुवर दास ने अपने को छोटा मोदी समझ लिया था।
झारखंड में भाजपा हाई कमान की गलती यह थी कि उसने रघुवर दास को सरकार और संगठन दोनों के मामले में एकाधिकार दे दिया। तुलसीदास ने कहा है- प्रभुता पाइ काहि मद नाही। सत्ता का नशा बड़ा भयानक होता है। फिर निर्बाध सत्ता का कहना ही क्या। रघुवर दास को मनमानी करने का खूब मौका मिला। जो चाहा, सो किया। टिकट देने में जात-पात, सरकारी अफसरों के पदस्थापन में जात-पात। कई अच्छे अफसरों को हाशिये पर कर दिया गया।
विधानसभा चुनाव में जिसको चाहा, उसको टिकट दिया, जिसको चाहा उसे बाहर से ले आया गया, जिसको चाहा उसे छांट दिया गया। पार्टी में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं रहा। जिससे सामूहिक निर्णय की प्रथा समाप्त हो गयी। प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव (Election) नहीं, चयन (Selection) होने लगा। यह भी मुख्यमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया गया। झारखंड में प्राय: सभी पार्टी अध्यक्ष मुख्यमंत्री की कठपुतली रहे हैं। पार्टी के पदधारियों का चयन भी मुख्यमंत्री ‘प्रसाद पर्यंत’ कर दिया गया।
रघुवर दास ने गृह व वित्त समेत सभी महत्वपूर्ण विभाग अपने पास रखे हुए थे। झारखंड में पार्टी की सरकार का बंटाधार करने में मुख्यमंत्री के दो-तीन नजदीकी अफसरों का भी ‘महान योगदान’ रहा। ये भी अपने को छोटा सुलतान समझने लगे थे। इन्होंने भी खूब गुल खिलाये।
ब्रिटिश इतिहासकार लार्ड एक्टन का कहना था – Power corrupts and absolute power corrupts absolutely यानी सत्ताधिकार व्यक्ति को भ्रष्ट करता है और पूर्ण सत्ताधिकार व्यक्ति को पूर्णरूप से भ्रष्ट करता है। यह कथन प्रस्तुत मामले में पूरी तरह फिट बैठता है।
*आदिवासियों से मेल-जोल का अभाव*
झारखंड में रघुवर दास पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री थे। इन्होंने राज्य के अंतर्वर्ती आदिवासी क्षेत्रों में जाकर उनसे मेल-जोल नहीं बढ़ाया। आदिवासी बहुत जजबाती होते हैं। ‘जल, जंगल, जमीन’ उनकी रग-रग में समाये रहते हैं। छोटानागपुर व संताल परगना काश्तकारी कानून में संशोधन कर विकास कार्यों के लिए आदिवासियों की जमीन लेने के प्रावधान से उनमें काफी विक्षोभ फैल गया। आदिवासियों को विश्वास में लेकर ही कानून में रद्दोबदल करना चाहिए था। यह बात अलग है कि राज्यपाल ने विधेयक को लौटा दिया। लेकिन इस प्रयास से आदिवासियों में गलत संदेश गया।
भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने झारखंड में इस तरह की शिकस्त की उम्मीद नहीं की थी। तो भी पार्टी के लिए राहत की बात यह है कि सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद उसके पास वोटों का अच्छा-खासा शेयर अब भी मौजूद है। यहां भाजपा को भाजपा ने ही हराया। पार्टी के गलत फैसलों के कारण पार्टी के नाराज व उदासीन कार्यकर्ता और समर्थक, वोट डालने के लिए नहीं पहुंचने वाले भाजपा के वोटर, बागी कार्यकर्ता व नेता- सबका संचित प्रभाव के कारण पार्टी की दुर्गति हुई।
*“झारखंड के वरिष्ठ नेताओं को झारखंड में पार्टी की भारी शिकस्त का अंदेशा नहीं था। मुख्यमंत्री के दंभ, पार्टी के गलत फैसलों, टिकटों के वितरण में घोर धांधली, अपने लोगों के टिकट अंधाधुंध ढंग से काटने और बाहर के अवांछनीय लोगों को टिकट देने से अनेक कार्यकर्ता और समर्थक नाराज हो गये या उदासीन हो गये। शहरी इलाकों में जहां भाजपा की पहुंच है, मतदान कम हुआ। राजधानी रांची में सबसे कम मतदान हुआ। पार्टी के उम्मीदवार को पिछली बार से करीब 16,000 वोट कम मिले*।”
बलबीर दत्त
भारतीय जनता पार्टी को हाल के दिनों में राज्य विधानसभाओं, विशेषत: झारखंड विधानसभा के चुनाव में झटका लगने के कटु अनुभव के बाद अपनी पूरी चुनावी रणनीति का पुनरावलोकन और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। जैसे किसी बीमारी को ठीक से समझने के लिए एक योग्य डाक्टर उसकी तह में जाने, रोग का निदान करने के बाद, इलाज की प्रक्रिया शुरू करता है, कुछ ऐसा ही भारतीय जनता पार्टी को करना होगा।
जैसे इमरजेंसी (1975-77) के दौरान सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी की सरकार की गलतियों और ज्यादतियों की जानकारी लोगों को मिलती जा रही थी, लेकिन बहुत-सी जानकारियां इमरजेंसी हटने के बाद मिलीं या ध्यान में आयीं। ठीक इसी प्रकार झारखंड में भाजपा की गलतियों की जानकारी चुनाव के दौर में लोगों को मिल रहीं थीं, लेकिन कई गलतियों की जानकारी चुनाव के बाद प्राप्त हुई। गलत फैसलों के दुष्परिणाम भी सामने आ गये।
*हार के वास्तविक कारण*
विचित्र बात यह है कि भाजपा के कई नेताओं को झारखंड में हार का कारण समझ में नहीं आ रहा। समझ में नहीं आने का कारण जानकारी का अभाव ही कहा जायेगा। किसी भी युद्ध की तरह चुनाव-युद्ध में भी वस्तुस्थिति या जमीनी हकीकत की पूर्व जानकारी नहीं होने, अपनी कमजोरियों और विरोधी पक्ष की क्षमताओं का सही पूर्व आकलन नहीं होने से रणनीति में जो गलतियां होती हैं, उसका खमियाजा भुगतना ही पड़ता है और यही झारखंड में भाजपा के साथ हुआ है।
पार्टी के कई नेता व प्रवक्ता, टीवी न्यूज चैनलों पर और अन्यत्र यह रटते जा रहे हैं कि उन्होंने डेवलपमेंट (विकास) के बहुत काम किये। यह दावा काफी हद तक सही है। लेकिन कुछ करणीम कार्य करने के साथ जो कार्य नहीं किये गये या गलतियां की गयीं, मतदाता उसकी अनदेखी नहीं करता। हमारे देश में आम मतदाता विकास के मुद्दों, आर्थिक नीतियों या घोषणापत्रों के आधार पर घर से वोट डालने नहीं निकलता। मतदान में अन्य कई फैक्टर भी प्रभावी भूमिका निभाते हैं, जिनमें निजी हिताहित और भावनात्मक मुद्दे भी शामिल रहते हैं। विधानसभा चुनावों में तो क्षेत्रीय दल या क्षेत्रीय मुद्दे मतदाताओं को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में होते हैं। तमिलनाडू जैसे कई राज्य तो ऐसे हैं, जहां राष्ट्रीय दल अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं।
*जीत-हार का सटीक विश्लेषण जरूरी*
हमारे देश के राजनीतिज्ञों की यह खासियत है कि वे चुनावों में अपनी हार को अक्सर शालीनतापूर्वक और खुले दिल से स्वीकार नहीं करते। जनादेश को मान लेना तो एक प्रकार की मजबूरी है, लेकिन हार का वैज्ञानिक और तर्कसंगत विश्लेषण करना भी एक मजबूरी मान लिया जाये तो कोई हर्ज नहीं। बल्कि इसे एक फायदेमंद प्र्रक्रिया और परिपाटी माना जाना चाहिये। अपनी पराजय के लिए बहानेबाजी का आसरा लेना या दूसरों पर दोषारोपण करना स्वयं को छलने के बराबर है।
पराजय की सटीक व्याख्या और विश्लेषण के साथ ही विजय की भी सटीक व्याख्या और विश्लेषण होना चाहिए। कई बार ऐसा पाया गया है कि विजयी पार्टी ने खुद यह नहीं सोचा होता कि उसे इतना बड़ा जनादेश मिल जायेगा। झारखंड विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे जैसे ‘सर्जिकल स्ट्राइक’, धारा 370, राम मंदिर, एन.आर.सी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) और सी.ए.ए. (नागरिकता संशोधन कानून) आदि प्रभावी नहीं हो पाये हालांकि भाजपा ने इनका लाभ उठाने का प्रयास किया। दूसरी ओर इन मुद्दों का विरोध करनेवाले महागठबंधन के नेता यदि यह समझते हैं कि भाजपा की हार में यह भी फैक्टर थे तो उसे भी सही नहीं कहा जायेगा, क्योंकि धरातल पर ये मुद्दे नजर नही आये। धरातल पर केवल और केवल क्षेत्रीय व स्थानीय मुद्दे ही असरदार थे।
पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर या मनचाही अवधारणा के आधार पर कोई राजनीतिक बयान देना ख्याली पुलाव पकाने के बराबर है, जैसाकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल के उस बयान से जाहिर होता है जिसमें उन्होंने कहा कि झारखंड का जनादेश नागरिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरुद्ध जनभावनाओं की अभिव्यक्ति है। दिल्ली में बैठे हुए केजरीवाल क्या यह मानते हैं कि झारखंड विधानसभा का चुनाव इन दोनों राष्ट्रीय मुुद्दों पर एक ‘रेफरेंडम’ (जनमतसंग्रह) था? वस्तुस्थिति यह है कि यहां ये कोई चुनावी मुद्दे नहीं थे।
वैसे भी नागरिकता संशोधन विधेयक पारित होने के बाद जब प्रतिक्रियाएं आनी आरंभ हुई तब तक झारखंड में आधा चुनाव हो चुका था। केजरीवाल को झारखंड में मुख्य राजनीतिक दल के रूप में उभरने वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं से पूछना चाहिए कि क्या उनके चुनाव के मुख्य मुद्दे यही थे?
इस प्रकरण में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव का बयान बहुत विवेकपूर्ण था। उन्होंने कहा कि जब मुख्यमंत्री व प्रदेश अध्यक्ष दोनों हार जायें तो इसका अर्थ है कि सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। यह देखना भी जरूरी है कि स्थानीय नेताओं से कहां चूक हुई।
*गलत फैसलों का दुष्परिणाम*
कभी-कभी चुनाव में किसी पार्टी की एक ही गलती उसका पूरा खेल बिगाड़ देती है, लेकिन झारखंड में भाजपा से एक नहीं एक साथ कई गलतियां हुईं- स्ट्रेटेजी के मामले में और मतदाताओं को रिझाने के मामले में भी।
गलत फैसलों का ही एक परिणाम यह था कि भाजपा ने क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दों को महत्व दिया। झारखंड के मतदाताओं ने मात्र छह माह पूर्व लोकसभा के चुनाव मे भाजपा की झोली भर दी थी। उसे 14 में से 12 सीटें मिलीं। लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के प्रति दोबारा विश्वास व्यक्त किया था। लोकसभा सीटों के अंतर्गत 57 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। चुनाव में 51 प्रतिशत वोट मिले थे। गठबंधन टूटने से 26 सीटों पर नुक्सान हुआ।
झारखंड में पार्टी की मशीनरी उतनी सक्रिय नहीं थी जितनी कि होनी चाहिए थी। जमीनी स्तर पर काम करने के बजाय हवा-हवाई बातें ज्यादा हो रही थीं। पार्टी के कर्त्ता-धर्ता आत्मतुष्टि के मूड में थे और यह मानकर चल रहे थे कि मोदी जी की सभाएं हो जायेंगी तो सब ठीक हो जायेगा। हवा उनके पक्ष में हो जायेगी। जानकार लोगों का कहना है कि अगर प्रधानमंत्री की 10 और राष्ट्रीय ‘अध्यक्ष अमित शाह’ की 11 रैलियां नहीं होती तो जो 25 सीटें मिलीं शायद वे भी नहीं मिलती। मुश्किल से आधी सीटें मिलती
झारखंड की राजधानी को भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है। वर्तमान विधायक और पूर्व मंत्री चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह लगातार छठी बार चुनाव जीत गये, लेकिन उन्हें मिलने वाले वोटों की संख्या घट गयी है।
*गठबंधन तोड़ना पड़ा भारी*
झारखंड में आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी भाजपा की सहयोगी पार्टी रही है। पिछली बार दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा था और बहुमत प्राप्त कर लिया था। इस बार सीटों के बंटवारे के विवाद को लेकर दोनों का गठबंधन टूट गया। गठबंधन के लिए आमतौर पर छोटी पार्टियां या क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा सीटों की मांग करती हैं और बड़ी पार्टी या राष्ट्रीय पार्टी ज्यादा सीटें देना नहीं चाहती। सौदेबाजी में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है।
लेकिन समझदारी का तकाजा यही है कि कुछ कम-बेशी करके मामले को निपटा दिया जाये। इस बार गठबंधन नहीं होने से भाजपा और आजसू दोनों को भारी नुकसान हुआ। भाजपा की सीटें जहां 37 से घटकर 25 रह गयी, वहीं आजसू की सीटें 7 से घटकर 2 रह गयीं। लेकिन यदि इन पार्टियों को मिले कुल वोटों को जोड़ा जाये तो 16 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे हैं जहां दोनों पार्टियों को महागठबंधन से अधिक वोट मिले हैं। यानी गणित के हिसाब से पूर्ण बहुमत मिल सकता था। भाजपा ने ‘अबकी बार 65 पार’ का नारा लगाते हुए अपनी ताकत को जरूरत से ज्यादा आंक लिया था। यह तो वैसा ही हुआ कि ‘आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे।’
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव अभियान के दौर में ही वस्तुस्थिति को भांप लिया था, इसलिए उन्होंने चुनाव प्रचार के बीच में ही सार्वजनिक तौैर पर कह दिया था कि हम आजसू के साथ मिलकर सरकार बनायेंगे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, इसका कोई तात्पर्य नहीं रह गया था।
*अपने नहीं बाहरी लोगों पर भरोसा*
भाजपा ने एक बहुत बड़ी गलती यह की कि चुनाव में बाहर के लोगों को दूसरे दलों से आये या लाये गये 16 लोगों को, पार्टी का टिकट दे दिया। इसका पार्टी के कार्यकर्ताओं, समर्थकों और आम लोगों में बहुत गलत मैसेज गया। प्रश्न है- क्या झारखंड में वर्षों से कार्यरत इस पार्टी को जो कई वर्ष सत्ता में रही उम्मीदवारों का टोटा पड़ गया था? मौजूदा 13 विधायकों का टिकट काट कर जिन लोगों को उम्मीदवार बनाया गया, उनमंे कई संदिग्ध चरित्र के व्यक्ति थे या अवांछनीय तत्व थे। भाजपा में लाये गये इन दलबदलुओं में से कई उम्मीदवार चुनाव हार गये। इस प्रकार कहा जा सकता है कि भाजपा की जीभ भी जल गयी और स्वाद भी नहीं आया।
हद तो तब हो गयी जब बिना किसी जाहिरी कारण के सरयू राय जैसे पुराने और दिग्गज पार्टी नेता का टिकट काट दिया गया। पार्टी ने मुख्यमंत्री रघुवर दास को एकाधिकार दे दिया था। इन्होंने पार्टी का बंटाधार कर दिया। इनका इरादा यह था कि सभी विधायक इनके खेमे के हों, इनकी मुट्ठी में रहे।
सरयू राय को वह अपना प्रतिद्वन्दी मानते थे और निष्कंटक राज करना चाहते थे। सरयू राय ने बगावत कर दी और अपना पुराना निर्वाचन क्षेत्र छोड़कर रघुवर दास के ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी और भारी बहुमत से उन्हें हरा दिया। सरयू राय की जीत के लिये भाजपा के ही कई कार्यकर्ताओं ने कार्य किया। इन्हें बागी करार दिया गया, लेकिन इससे पूरी स्थिति में क्या फर्क पड़ता है। जो होना था, हो गया। प्रश्न है- बगावत की नौबत क्यों आयी?
*वोट नहीं डालने वाले भाजपा के ही वोटर थे*
रांची निर्वाचन क्षेत्र में मतदान का प्रतिशत राज्य में सबसे कम करीब 49 प्रतिशत रहा, जबकि यह राजधानी क्षेत्र है और यहां मतदाताओं में अधिकतम पढ़े-लिखे लोग हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आधे लोग वोट डालने ही नहीं आये। पार्टी के कार्यकर्ता हजारों लोगों को बूथों पर ही नहीं ला पाये। भाजपा का प्रभाव शहरी क्षेत्रों में अधिक है और शहरी क्षेत्रों में ही मतदान का प्रतिशतांश कम रहा, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान 70 से 76 प्रतिशत तक हुआ। ग्रामीण क्षेत्रों में झारखंड मुक्ति मोर्चा का अच्छा-खासा प्रभाव है।
इस बार शहरी क्षेत्रों में व अन्यत्र जो लोग वोट डालने नहीं आये वे भाजपा के ही वोटर थे। ये लोग नाराज थे या उदासीन थे भाजपा को यह पता लगाने की जरूरत है। ऐसा बताया जाता है कि ये लोग नाराज भी थे और उदासीन भी थे। दोनों स्थितियां पार्टी के लिए हानिकर है।
*घर-घर मोदी, घर-घर रघुवर* !
जहां तक नाराजगी की बात है, यहां यह उल्लेख करना उपयुक्त होगा कि राजस्थान में 2018 में विधानसभा चुनाव में यह नारा बहुत चर्चित हुआ था- ‘मोदी तुमसे वैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं।’ ये लोग भाजपा या मोदी से नाराज नहीं थे, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से उनकी कार्यशैली और अक्खड़पन से नाराज थे। उन्होंने राजस्थान में भाजपा को हरा दिया। इन्हीं मतदाताओं ने नारे की सार्थकता 6 माह बाद लोकसभा चुनाव में सिद्ध कर दी जब राजस्थान से कांग्रेस का पूरी तरह सफाया कर दिया। लोकसभा की 25 की 25 सीटें 2014 के चुनाव की तरह भाजपा की झोलों में डाल दी।
झारखंड के मामले में जहां राजस्थान के संदर्भ में नारे में ‘वसुंधरा’ शब्द है, वहां ‘रघुवर’ अंकित कर देने से मतदाताओं की भावना प्रकट हो जाती है। रघुवर दास ने ‘घर-घर मोदीह्ण की तरह ह्यघर-घर रघुवर’ का नारा दिया, जो फेल हो गया। शायद रघुवर दास ने अपने को छोटा मोदी समझ लिया था।
झारखंड में भाजपा हाई कमान की गलती यह थी कि उसने रघुवर दास को सरकार और संगठन दोनों के मामले में एकाधिकार दे दिया। तुलसीदास ने कहा है- प्रभुता पाइ काहि मद नाही। सत्ता का नशा बड़ा भयानक होता है। फिर निर्बाध सत्ता का कहना ही क्या। रघुवर दास को मनमानी करने का खूब मौका मिला। जो चाहा, सो किया। टिकट देने में जात-पात, सरकारी अफसरों के पदस्थापन में जात-पात। कई अच्छे अफसरों को हाशिये पर कर दिया गया।
विधानसभा चुनाव में जिसको चाहा, उसको टिकट दिया, जिसको चाहा उसे बाहर से ले आया गया, जिसको चाहा उसे छांट दिया गया। पार्टी में कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं रहा। जिससे सामूहिक निर्णय की प्रथा समाप्त हो गयी। प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव (Election) नहीं, चयन (Selection) होने लगा। यह भी मुख्यमंत्री के विवेक पर छोड़ दिया गया। झारखंड में प्राय: सभी पार्टी अध्यक्ष मुख्यमंत्री की कठपुतली रहे हैं। पार्टी के पदधारियों का चयन भी मुख्यमंत्री ‘प्रसाद पर्यंत’ कर दिया गया।
रघुवर दास ने गृह व वित्त समेत सभी महत्वपूर्ण विभाग अपने पास रखे हुए थे। झारखंड में पार्टी की सरकार का बंटाधार करने में मुख्यमंत्री के दो-तीन नजदीकी अफसरों का भी ‘महान योगदान’ रहा। ये भी अपने को छोटा सुलतान समझने लगे थे। इन्होंने भी खूब गुल खिलाये।
ब्रिटिश इतिहासकार लार्ड एक्टन का कहना था – Power corrupts and absolute power corrupts absolutely यानी सत्ताधिकार व्यक्ति को भ्रष्ट करता है और पूर्ण सत्ताधिकार व्यक्ति को पूर्णरूप से भ्रष्ट करता है। यह कथन प्रस्तुत मामले में पूरी तरह फिट बैठता है।
*आदिवासियों से मेल-जोल का अभाव*
झारखंड में रघुवर दास पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री थे। इन्होंने राज्य के अंतर्वर्ती आदिवासी क्षेत्रों में जाकर उनसे मेल-जोल नहीं बढ़ाया। आदिवासी बहुत जजबाती होते हैं। ‘जल, जंगल, जमीन’ उनकी रग-रग में समाये रहते हैं। छोटानागपुर व संताल परगना काश्तकारी कानून में संशोधन कर विकास कार्यों के लिए आदिवासियों की जमीन लेने के प्रावधान से उनमें काफी विक्षोभ फैल गया। आदिवासियों को विश्वास में लेकर ही कानून में रद्दोबदल करना चाहिए था। यह बात अलग है कि राज्यपाल ने विधेयक को लौटा दिया। लेकिन इस प्रयास से आदिवासियों में गलत संदेश गया।
भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने झारखंड में इस तरह की शिकस्त की उम्मीद नहीं की थी। तो भी पार्टी के लिए राहत की बात यह है कि सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद उसके पास वोटों का अच्छा-खासा शेयर अब भी मौजूद है। यहां भाजपा को भाजपा ने ही हराया। पार्टी के गलत फैसलों के कारण पार्टी के नाराज व उदासीन कार्यकर्ता और समर्थक, वोट डालने के लिए नहीं पहुंचने वाले भाजपा के वोटर, बागी कार्यकर्ता व नेता- सबका संचित प्रभाव के कारण पार्टी की दुर्गति हुई।
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